वो शख़्स खुश बहुत है जो मेरी तरह जिया ।
वो बदनसीब जिसने नहीं मय को है पिया ।
वो ही गिरे हैं राह में समझे न बात ये,
शर्बत समझ शराब को गटके जो शौकिया ।
खाना ख़राब बाग के मालिक बने हुए ,
ये मुल्क उनके हाथ में किसने थमा दिया ।
वो प्रश्न पूछने लगे कैसी ग़ज़ल कही,
इसका रदीफ़ क्या है बता क्या है क़ाफिया ।
कुछ सिरफिरे जनाब तो इतना भी कह गए ,
ये क्या लिखा है आपने लगता है मरसिया ।
मैंने जो अपनी बात कही है जबान से ,
ये तथ्य सत्य मान तू या मान हाशिया ।
कैसे जला हैं बाग ये मुझको नहीं ख़बर ,
जो भी किया है आज ये सब आप ने किया ।
मुझको नहीं पता है की कैसी हुई ग़ज़ल,
“हलधर” हुए अदीब जो पहले थे माफिया ।
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून