प्रेम में सब कुछ मिला
तुमसे अपरिचित !
क्या हुआ जो मोगरे के फूल बालों में नहीं है,
बात मेरी रात में जो है, उजालों में नहीं है.
क्यों किसी की मांग का सिंदूर मुझको मुंह चिढ़ाता
जिस तरह मेरे हुए तुम, कौन तुमको जीत पाता
हो गई निश्चिंत मैं,
होकर अनिश्चित!
चैन जितना था तुम्हारे साथ, अब उतने सपन हैं
सब तुम्हारे बिन, तुम्हारे साथ होने के जतन हैं
हर किसी के द्वार पर जब चांद डेरा डालता है
हां, ज़रा सी देर मन अभिनय हँसी का टालता है
कर रही चुपचाप इक
आँसू विसर्जित!
लग रही है उम्र छोटी, याद तुमको कर रही हूं
मैं तुम्हारे नाम से हर एक अक्षर पढ़ रही हूं
संग तुम्हारे जोड़कर ख़ुद को घटाऊं, किस तरह अब
तोड़कर तुमसे स्वयं को जोड़ पाऊँ, किस तरह अब
शून्य से अब हो चुकी
हूं, मैं अपरिमित!
–मनीषा शुक्ला, दिल्ली