रूहे-फितरत को नजर-अंदाज कर,
कारवां में बह चले हो,
जालिम नजरों के कटघरे में,
हमें भी सवार कर चले हो।
तहजीब को हिदायतें देकर ,
गम हजार दे चले हो,
अश्कों की भीगी परतो पर ,
कहर का शहर शुमार कर चले हो।
बस्तियां गुजर जाती है,
खामोशी के टूटने पर,
तुम शोरगुल जिगर के ,
आर-पार कर चले हो।
तेरी निगाहें पढ़ती रही मैं,
चंद लम्हों की फुर्सत सोचती रही मैं,
तेरे खिलाफ ना उठी मेरी नजर भी
खुद को तेरे आगोश में कर चली मैं।
तेरे कदम मेरे कदमों को सुनते गए,
तेरी सांसे मेरी सांसो को महसूस करती रही,
तेरी एक आवाज की कसक में ,
गम मेरे हजार कुर्बान कर चली मैं।
मेरे शामियाने में दस्तक दे कभी,
मेरे आशियाने में गुजर-बसर कर कभी,
मैं हुई फना तेरी मोहब्बत में,
ना जाने कितने सितम कर चली मैं।
लफ्ज़ खुलते-खुलते रह से गए हैं,
शमाये भी गमगीन सी हैं,
क्या खता थी मेरी मोहब्बत की,
क्यों गुनाहों की पनाह में सराबोर हो चली मैं।
– प्रीति पारीक,जयपुर, राजस्थान