प्रकाशमय दिन ढला, मधुरिमा रात्रि हुई।
शीतल हिमकर किरणों की बरसात हुई।।
आलस की निद्रा दुबकर ओढ़ ली रजाई।
धधकती अग्नि की कोहरे ने ली जम्हाई।।
मुझे याद आ रही है ठण्ड की सुहानी रात।
बिस्तर में लेटा कर रहा था पत्नी से बात।।
भूल नहीं पाऊंगा कभी पहला मुलाकात।
शहद रात्रि मुझे दी थी प्यार का सौगात।।
दिव्यलोक उपवन सदृश सजा था प्रकोष्ठ।
अदृष्ट थरथरा रहे थे कोमल कमल ओष्ठ।।
अवगुंठिका उठा देख लिया स्वर्णिम कोष्ठ।
अंतर्मन में जाग उठी कामना उभयनिष्ठ।।
सुप्त कलियां खिल गई देखकर मधुप को।
दीवाना बार-बार निहारने लगा रंग-रुप को।।
मकरंद का आनंद ले रहा था जैसे धूप को।
संस्पर्श किया सुवासित सौंदर्य अनूप को।।
निशीथ में नींद आयी अंग-अंग में ताजगी।
वर्षों का प्यासा दिल में छा गई दीवानगी।।
अप्सरा, विश्व सुंदरी, रात की रानी सर्वांगी।
श्वेत अमृत प्रीत की वर्षा करो तुम सादगी।।
– अशोक कुमार यादव, मुंगेली, छत्तीसगढ़