तुम्हे देखा,पर न जानूँ, तुम अप्सरा हो कौन,
गीत हो तुम, काव्य सुन्दर, हो मुखर या मौन,
तुम सितारों से हो उतरी, गति परी समान
बूँद वर्षा की लगो या मोर पँख सा परिधान ।
था अचंभित देख तुमको इंद्रधनुष अभिमानी,
कहा नभ से पूछ लो तुम जैसी कोई होगी रानी,
मेघावरि की आर्द्रता को छू कर पूछा एक बार,
कहा उसने मत पूछ मुझसे, करो यह उपकार ।
कोयल सम स्वर कोकिला तुम, शोभित अति कामिनी,
नयन खंजन , मंद स्मित कहो हो किसकी भामिनी,
हो नहीं पथभ्रान्त तुम भ्रमर सी पुष्प मकरंद परिचित,
क्यों न कामना हो हृदय को, क्यों न हो यह विचलित।
हे प्रेयसी! धरा से स्वर्ग तक मात्र तुम्हारा ही वर्चस्व
कल्पना तुम, कल्प तुम, तंत्रिकाओं में दिखे प्रभुत्व।।
– प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य (सॉनेटियर) सागर, मध्यप्रदेश