औद्योगिक गलियारों में भी, कमी नहीं है शोर की।
जहाँ कहीं उत्पादन होता, ध्वनि उठती है जोर की।
तरह-तरह की आवाजें मिल, मन में कोलाहल करतीं,
सबका मानस करे प्रतीक्षा, शांत-सुकोमल भोर की।
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जो उपाय सरकार कर रही, आधे और अधूरे हैं।
जो आदेश निकाले अब तक, हुए नहीं वे पूरे हैं
न्यायालय का दखल हुआ पर, उसको लागू कौन करे,
लाचारी में कान बंद कर, बेबस हो नभ घूरे हैं।
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बीतते पल जिंदगी के नित्य कुछ सिखला रहे।
खो दिया क्या और पाया क्या यही बतला रहे।
बस जरूरत है यही हम कर्म सार्थक नित करें,
अनुभवों के मूल्य को क्यों कर भला झुठला रहे।
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश