काठ के घोड़े हकीकत जानते क्या अस्तबल की ।
झोंपड़ी की आग की या पेट में सुलगी अनल की ।
छांव बरगद में जलन है और बाड़ों में तपन है ,
कूप का पानी विषैला गंध आती है गरल की ।
राज है अब बस्तियों पर जातिवादी जानवर का ,
गांव की चौपाल रोती देख हरकत आजकल की ।
धूप दिन में रो रही है राज कुहरे का हुआ है ,
बाग माली से डरा है रूह कांपी फूल फल की ।
खेत से खलिहान बोला क्या उगाया आज तूने ,
गंध है बारूद जैसी और सूरत रायफल की ।
मैं नहीं कहता यही इतिहास कहता आ रहा है ,
क्या किसी सरकार ने आंकी सही कीमत फसल की ।
कौन “हलधर” का हितैषी प्रश्न मुँह खोले खड़ा है ,
लोभ लालच में सनी सरकार अब प्रत्येक दल की ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून