आओ चलें फिर से वहीं जब, प्रेम था शुभ आस्तिका।
जहाँ आपका होना लगा था , शुभ्र कुमकुम स्वास्तिका।।
जैसे धवलता चाँद का हो, मधुमयी ऊर्जा मिले।
जैसे सरोवर मान में हो, प्रिय प्रणय उत्पल खिले।।
वो आपके मृदु बोल अंतर , में यथावत हैं पड़े।
दैदिप्य रौशन द्वार उर पर, अंशुमाली हों खड़े।।
यूँ आपका आना प्रिये तब, कल्प तरुवर सा लगा।
प्रत्यक्ष प्रेमाभूति खिल कर, पुष्प का आँचल जगा।।
वो दिव्य सी अनुभूतियों का, दिव्य सा मर्याद था।
शायद यही तो गीत मीरा , कृष्ण का संवाद था।।
ब्रह्मांड के इस भव्यता में , संग चाहे सर्वदा।
ज्यों चाँद से हो चाँदनी रवि, रौशनी से कब जुदा।।
– प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर