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गीत – जसवीर सिंह हलधर

तुम चाहे मानो मत मानो ,पर मेरा विस्वास अटल है ।

मज़हब अगर नहीं होते तो ,रूप जगत का न्यारा होता ।।

 

धर्म जाति के बंध न होते , आपस में संबंधी होते ।

बंधन संसाधन बन जाते ,विपदा में अनुबंधी होते ।।

कर्म प्रधान व्यवस्था होती ,धरती भी कितनी खुश होती ,

यक्ष प्रश्न यदि ऋषि मुनियों ने, संयम पूर्ण विचारा होता ।।

मज़हब अगर नहीं होते तो , रूप जगत का न्यारा होता ।।1

 

सरहद मुक्त विश्व होता यह , भौगोलिक सीमांकन होता ।

जलवायू परिवर्तन खातिर ,सकल विश्व में मंथन होता ।।

भांति परिंदों के मानव भी , दुनियाँ भर में विचरण करता ,

द्वेष क्लेश सभी मिट जाते ,मानव धर्म हमारा होता ।।

मज़हब अगर नहीं होते तो , रूप जगत का न्यारा होता ।।2

 

प्राकृतिक विपदा की खातिर ,सेना काम काज सब करती ।

परमाणु से बिजली बनती ,उजियारी हो जाती धरती ।।

अस्त्र शस्त्र की होड़ न होती , कितने संसाधन बच जाते ,

भूख गरीबी से लड़ने में , ये धन एक सहारा होता ।।

मज़हब अगर नहीं होते तो , रूप जगत का न्यारा होता ।।3

 

सागर में भी कोलाहल है ,रोज मिसाइल बम चलने से ।

अब भी समय सँभल जा “हलधर”,दुनिया बच जाये जलने से ।।

रंग भेद, विस्तारवाद का,नाग समय से कुचला होता ,

सोचो इस प्यारी वसुधा का , रूप अनौखा प्यारा होता ।।

मज़हब अगर नहीं होते तो , रूप जगत का न्यारा होता ।।4

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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