शबे-तन्हाई तूने पुकारा ही नहीं,
तेरी याद के सिवा चारा ही नहीं।
राहे-सफर में तेरे बिछुड़ने के बाद,
इस दिल में कोई उतारा ही नहीं।
शामे-मंज़र और आलमे-तन्हाई,
जहां में ऐसा नजारा ही नहीं।
यूँ तो गली से कई बार गुजरे,
पर तूने कभी पुकारा ही नहीं।
सफरे-इश्क़ बहुत महंगा रहा,
दुबारा करूँ ये गवारा ही नहीं।
जीना इतना सस्ता कहां रहा,
पर मरने का इशारा ही नहीं।
नींद बेवफा हुई तेरी तरहा और,
ख्वाबे-यार बिना गुज़ारा ही नहीं।
तेरे बेखबर होने के बाद निराश,
जहां में अब कोई सहारा ही नहीं।
– विनोद निराश , देहरादून