उम्र हो गयी,
पचास पार ।
सुख से चल रहा,
“शांति “के साथ घरबार ।
शांति थी गुजरात की,
बढियां चल कारोबार ।
बच्चे भी हैं होनहार ।
पोता पोती,
करते ह्रैं दादाजी से प्यार ।
ना किसी से शिकवा,
ना कोई तकरार ।
बैठा था झूले पर,
याद करते दिन ।
शांति भी बैठकर,
चोटी रही थी बिंध ।
चोटी बिंधते,
बोल रही थी,
राई,धनिया,मीठुं ।
मैं सुन रहा था,
उसको मीटु ।
सुनकर हो गया,
शरीर सुन्न सारा ।
लगता कोई,
लकवा मारा ।
खंगाल रहा था,
इतिहास सारा ।
चंपा, चमेली या नयन तारा ।
याद कर रहा दुबारा ।
जो भी था,
भूल चुके थे हम ।
साफ चरित्र,
नज़र आ रहा सारा ।
फिर भी शरीर,
हिल रहा था सारा ।
मैं हिम्मत करके बोला,
” क्या बोली शांति,
बोलना दुबारा ।”
वो बोली,
“धनियां,राई मीठुं ,
रात्रे जमाई,
जमवानुं आवशे ,
मारा हाथना ,
ढोकला पसंद छे ।”
मैं बोला,
” ढोकला में मीठुं !
मीठा नहीं होगा ?”
वो बोली,
” ना रे,
मीठुं माने नमक ।”
हमारी,
आँखें उठी चमक ।
बोला,
“शांति मेरी स्वीटु
मैं सुन रहा था,
मीटु मीटु ।”
सोचा,
शब्द के होते ,
कितने अर्थ ।
ना समझो तो,
सब अनर्थ ।
✍प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्र