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मीठुं – प्रदीप सहारे

उम्र हो गयी,

पचास पार ।

सुख से चल रहा,

“शांति “के साथ घरबार ।

शांति थी गुजरात की,

बढियां चल कारोबार ।

बच्चे भी हैं होनहार ।

पोता पोती,

करते ह्रैं दादाजी से प्यार ।

ना किसी से शिकवा,

ना कोई तकरार ।

बैठा था झूले पर,

याद करते दिन ।

शांति भी बैठकर,

चोटी रही थी बिंध ।

चोटी बिंधते,

बोल रही थी,

राई,धनिया,मीठुं ।

मैं सुन रहा था,

उसको  मीटु ।

सुनकर हो गया,

शरीर सुन्न सारा ।

लगता कोई,

लकवा मारा ।

खंगाल रहा था,

इतिहास सारा ।

चंपा, चमेली या नयन तारा ।

याद कर रहा दुबारा ।

जो भी था,

भूल चुके थे हम ।

साफ चरित्र,

नज़र आ रहा सारा ।

फिर भी शरीर,

हिल रहा था सारा ।

मैं हिम्मत करके बोला,

” क्या बोली शांति,

बोलना दुबारा ।”

वो बोली,

“धनियां,राई मीठुं ,

रात्रे जमाई,

जमवानुं आवशे ,

मारा हाथना ,

ढोकला पसंद छे ।”

मैं बोला,

” ढोकला में मीठुं !

मीठा नहीं होगा ?”

वो बोली,

” ना रे,

मीठुं माने नमक ।”

हमारी,

आँखें उठी चमक ।

बोला,

“शांति मेरी स्वीटु

मैं सुन रहा था,

मीटु मीटु ।”

सोचा,

शब्द के होते ,

कितने अर्थ ।

ना समझो तो,

सब अनर्थ ।

✍प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्र

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