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मैं शब्दों को नहीं पिरोती – सविता गर्ग

मैं शब्दों को नहीं पिरोती,

हां मैं शब्दों को नहीं पिरोती।

 

शब्द स्वयं गुंथ जाते हैं,

भावों के गुलगुल धागों में,

कोई गीत नया बन जाता है,

मैं करता धरता नहीं होती,

सत्य कहूं तो यही सत्य है,

मैं शब्दों को नहीं पिरोती।

 

झर झर बहती आंखों से,

नि:सृत हुआ हर इक आंसू,

सच्चा मोती बन जाता है,

मैं जानबूझकर नहीं रोती,

सत्य कहूं तो यही सत्य है,

मैं शब्दों को नहीं पिरोती।

 

सब कसमें सिंदूरी रस्में,

पायल का इक इक घुंघरू,

मुझे सारी रात जगाता है,

पलकें जगती हैं नहीं सोती,

सत्य कहूं तो यही सत्य है,

मैं शब्दों को नहीं पिरोती।

✍️ सविता गर्ग सावी, पंचकूला, हरियाणा

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