उन पलो का हिसाब दे दो तुम,
उस वफ़ा का जवाब दे दो तुम।
साथ तुम जो न दे सके मेरा,
अब सजा लाजवाब दे दो तुम।
वो गुलो से भरी मुहब्बत थी,
आज सूखा गुलाब दे दो तुम।
चांद थे यूँ कभी तुम्हारे हम,
फिर नया सा खिताब दे दो तुम।
वो नज़र ढूढ़ती हमे थी बस,
दिलरुवा अब नकाब दे दो तुम।
जो लिखे थे कभी तुम्हे वो खत,
उन खतो की किताब दे दो तुम।
चंद मेरी निशानी लौटा दो,
या नदी सा बहाव दे दो तुम।
शूल ही है नसीब में मेरे,
कुछ गुलों का झुकाव दे दो तुम।
किस तरह हम गुजर करे अपनी,
अब मुझे कुछ सुझाव दे दो तुम।
ऐ खुदा बक्श दे मुझे तू ही,
नेकी का कुछ शबाब दे दो तुम।
नाम “झरना” कभी था सांसो में,
फिर मुझे वो ख्व़ाब दे दो तुम।
– झरना माथुर, देहरादून, उत्तराखंड