नैसर्गिग इस सुदरता ने उन भौतिक श्रृंगारों को,,
कुमकुम काजल रंजनश्लाका रोली को मसकारों को,
प्रकट होकर दिव्यरूप में, हाँ औकात बता डाली,
श्रृंगारो तुम तो हमसे ही थे किंचित बात बता डाली।
बैठ गए श्रृंगार पिटारे अपना ढक्कन बंद किये,
दम्भ तोड़ने के कुदरत ने खुद सारे प्रबंध किए,
आसमान के बादल कैसे छुपकर बैठे केशों से,
नर्म मुलायम नाजुक पलकें रेशम के भी रेशों से।
आँखें हैं आपेक्ष उड़ीं या भाल गगन पर चिड़ियाँ हैं,
दंतपंक्ति मानो बिखरीं सी कमल-दलों में लड़ियाँ हैं,
ऋषि मुनि अपना ध्यान गवां दें सुंदर कर्णाकृतियों में,
मधुराधर मोहक मुस्काते मंद मंद आवृतियों में।
– भूपेन्द्र राघव , खुर्जा, उत्तर प्रदेश