देख कर दशा हिन्द और हिंदी की,
व्यथित है मन,
पर क्या हुआ इस व्यथा का,
जो सुधारने की दशा इसकी,
न किया कोई जतन।
और होगा क्या करने से विलाप,
बैठा है कौन सुनने को,
अपने दुःख, दर्द औ आलाप।
बढ़ना है हमें ही अग्निपथ पर,
निरन्तर..बिना रुके,बिना झुके,
बाधाएं आएं तो क्या?
ठोकरें तो आभूषण हैं पांवों के,
सिखाती हैं चलना,
संभल के,सलीके से।
तो आओ चलें हम..आज तुम्हें,
पुकार रही है माँ भारती,
हिंदी की पताका…..
इस जग मन्दिर में फहराओ तुम,
और देखना एक दिन संसार सारा,
उतारेगा तुम्हारी आरती।
– अनूप सैनी ‘बेबाक’, हिंदी व्याख्याता,
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बाडेट, झुंझुनूं, राजस्थान
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