सभ्यता लौटी नहीं अब तक फिरंगी झील से ।
मोर लड़ लड़ मर रहे हैं मांस खाती चील से ।
रोग कोरोना बड़ा या भूख इक मजदूर को ,
प्रश्न पैदल चल रहा उत्तर लिए सौ मील से ।
जाहिलों की सोच ही भारी पड़े सरकार पर ,
रोशनी बाहर न आये कागजी कंदील से ।
दूध की नदियां बहाने की कसम खाते रहे ,
जंगलों से मुर्गियां भी छीन लाये भील से ।
सौ टमाटर बिक रहे हैं और नींबू पांच सौ ,
संतुलित भोजन करो ये हुक्म है तहसील से ।
आज इस माहौल में भी राजनैतिक खेल है ,
केजरी को रोहिंगिया लगते बतासा खील से ।
हिंदुओं के देवता कानून से डरने लगे ,
मस्जिदें बचती दिखें कानून के तामील से ।
यज्ञ की बेदी नहीं बारूद का घर मानिए ,
आग आगे बढ़ रही है मज़हबी तफसील से ।
हिंदुओं के देश में ही हिंदुओं को भय लगे ,
रोग “हलधर” बढ़ रहा है राजनैतिक ढील से ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून