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कलम मेरी – पूनम शर्मा

कुछ मर्म लिखूं तो कलम मेरी,

रो-रो कर अश्क बहाती है ।

दर्द जो देखे वो जग के तो ,

घुट कर ही रह जाती है।

कुछ कहा नहीं कुछ सुना नहीं ,

पर दिल ही दिल में घबराती है ।

जो देखे जग के रंग तो वो,

खुद में उलझ सी जाती है।

बस कहती मुझसे है इतना ,

वो ये सब ना सह पाती है ।

भाती है उसको ममता और ,

वो स्नेह सदा लुटती है ।

रखती है मैं प्रेम सदा और ,

प्रेम के गीत ही गाती है।

पर्वत नदियां पुष्प सुमन सब ,

उसको बड़े हर्ष आते हैं।

तितली भंवरों की गुंजन ,

उसे मंत्र मुक्त कर जाते हैं।

बचपन यौवन और प्रौढ़ के,

गीत सदा वो गाती है।

और धरा के संस्कृति में ,

घुलमिल सी वो जाती है।

लिखकर हरदम बात वो दिल की ,

दिल से कुछ कह जाती है।

कुछ मर्म लिखूं तो कलम मेरी,

रो-रो कर अश्क बहाती है ।

दर्द जो देखे वो जग के तो ,

घुट कर ही रह जाती है।।

– पूनम शर्मा स्नेहिल, जमशेदपुर

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