क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं,
सब कुछ भुलाकर अपनी,
जी जान लगाए बैठे हैं,
क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं।
कुछ तो दिलो में तुफान
उठाए बैठे हैं,
तो कुछ,
मन में ही सवाल बनाए बैठे हैं,
क्या होगा इनके इरादों का,
जो मसला-ए-हकीकत की
बात करने आए हैं,
क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं।
कोई जाति, कोई धर्म से ही
पहचान रहे,
हमें तो अपने ही बांट रहें,
फिर भी एक उम्मीद से हम,
सच्चाई से लडने आए हैं,
क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं।
कोई यहां विचारों की है बात कर रहा,
तो कोई इशारोंसे बात कर रहा,
नफरत के बीज कितने है गहरे,
तो कोई जातिवादी मसकारो
से है बात कर रहा,
अब क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं।
कुछ तो सियासत करने आए हैं ,
तो कुछ बाबा साहब की
विरासत के ठेकेदार बनने आए हैं,
रजनी बाला की शहादत की,
परवाह किसे है अब,
यहां सब क्या फसाद का
हिस्सा बनने आए हैं,
क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं।
जीते या हारे,
आने वाले कल को हम,
क्या सिखाकर जाएंगे,
कुछ लोग तो यहां
प्रधान बनने आए हैं,
बस फ़िक्र उनकी है जो,
जो मसला-ए-हकीकत की,
क्या कहूं मैं उनसे,
जो उम्मीद लगाए बैठे है।
– दीपक राही, आर०एस०पुरा,
जिला जम्मू, (जे एंड के)