मनोरंजन

प्रेम – किरण मिश्रा

शब्दों की चुप्पियाँ

भीतरघात कर रही हैं

और तुम अभिमानी पुरुषत्व

के सघन वृझ

सदृश हरहरा रहे हो ,

 

शीतल हवा का स्पर्श

तुम्हें जड़ से चेतन में

परिवर्तित करने को आतुर है ।

 

हे दम्भी पुरुष

स्त्री की कोमलता

और तरलता

में ही तुम अपनी

जडो़ को रोप

हरे भरे रह सकते हो

और सीना तान कर खडे़ भी।

 

प्रेम से विमुख

पुरुषत्व रुखा काष्ठ है सिर्फ

जिसका जलना

अवश्यम्भावी है।

वक्त और इतिहास के तले।।

 

सृष्टि ने भी इसीलिए

अपनी संरचना में

हमारा बराबर सहयोग लिया है।

– किरण मिश्रा स्वयंसिद्धा, नोएडा, उत्तर प्रदेश

Related posts

गजल – रीतू गुलाटी

newsadmin

सच चुप-चुप क्यूँ बना रहता – सुनील गुप्ता

newsadmin

ज्येष्ठ सी मैं तप रही हूँ – अनुराधा पाण्डेय

newsadmin

Leave a Comment