भोला सा मेरा मन था कभी,
चंचल सा चित्त था वो कभी,
अलहड़ सी जिंदगानी थी,
खुशियो से बीता पल था।
प्रेम छलकता था सब पर,
क्या अपने क्या बेगाने,
भोली सी सूरत थी मेरी,
सबसे ही अपनापन था।
तभी परिवर्तन की बयार चली,
आँगन मे लायी सुंदर कली,
सौप दिया उसे मैने वो पौधा,
रोपा था जिसे फल खाने के लिये।
क्योकि सोचने वो लगी थी,
बेवजह मुझे काँटो की लड़ी,
तब बरसी आँखो मे मेरे झड़ी,
परिवर्तन की बनी पहली कड़ी।
आ गया चक्रवात भंयकर,
अस्त व्यस्त हो गया मंदिर,
कागज के पन्नो सी सिहर गयी,
ममता मेरी फिर बिखर गयी।
सहन किये सब झंझावात,
उत्तरदायित्व किया मैने पूरा,
सुखद छाँव के अनुभास हेतु,
रखना पड़ा मन उससे अधूरा।
परिवर्तन को इस जीवन में,
मैं आगे नही झेल पाऊँगी,
हो जाऊँगी इक दिन धाराशायी,
अपनी ही टहनियों के भार से।
सौपना चाहती थी कभी उसे,
अपनी जड़ो को दूँ विरासत मे,
देना चाहती थी स्थायित्व,
परिवर्तन ने किया नकारा हमे।
न दे सका पेड सुखद छाया,
विचलित था बड़ा, कली के,
उच्छृंखल व्यवहार से वो,
नियति को झेल न पाया।
देख देख कर लोगो के रंग,
प्रेम का मोह हुआ था भंग,
परिवर्तन की राह चली,
जिंदगी स्वतः हुई तंग।
– ऋतु गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़