कदम मिलाकर चल रही, जनता अंगरेज़ी की चाल।
कौना- कौना बिलख रही, हिंदी, बेचारी बदहाल॥
आज परिंदे पर को खोले, उड़ते जाते साथ।
आंग्ल रूप में रंग के, दक्खिन वाली करते बात॥
छाप (जाप) तिलक और धोती कुर्ता, नहीं सुहाते इनके अंग।
मधुर-मधुर मंत्रो की वाणी, इनको लगती बदरंग॥
आकुल-व्याकुल हिंदी बैठी, लेकर आँचल धार।
पूत भये हैं कपूत क्यूं? आँवल करती ये विचार॥
अपने घर की वृंदा सूखी, सूख रही ममतामयी डाल।
आँगन-आँगन पत्ते बिखरे, रहा न तन पे ढाल॥
अपनी बोली अपनी भाषा, छोड चले है जात।
अपनेपन का आभास नहीं, वहां न रुकना मात॥
– ललिता शर्मा’नयास्था’, भीलवाड़ा,राजस्थान
९६१०३०६०३९