नहीं बिजनौर से आयी न आयी है नगीने से ।
गुलाबी है ग़ज़ल मेरी लिखी दो घूँट पीने से ।
बड़े उस्ताद शाइर भी ये नुस्खा आजमाते है ,
ग़ज़ल को कह रहे हैं जो सलीके से करीने से ।
मिले कुछ आसमाँ में घूमते असरार यूँ मुझको ,
सजाया शे”र में उनको सदाकत के जरीने से ।
जरा सी वोदका पीकर मेरा महबूब भी आया ,
इशारा कर रहे उसको मियाँ मतलूब जीने से ।
कई रातों को जागा हूँ कई दिन भी गवायें हैं ,
नहीं लिख पा रहा था छंद पिछले दो महीने से ।
दवाई की तरह पीना बहकना मत गँवारों में ,
कभी नफ़रत नहीं ढोना अदीबी के सफीने से ।
कभी बिजली कभी पानी बढ़ी है फीस बच्चों की ,
मुझे फुरसत कहाँ मिलती फटी पोशाक सीने से ।
जवानी तो जलाकर राख कर दी नौकरी ने यूँ ,
बुढ़ापा चल रहा “हलधर”लहू पिघले पसीने से ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून