अतुलित अनुपम रूप तुम्हारा,
आज विवश हो कविमन हारा ।
हो गयीं बेसुध सब उपमाएं,
कैसे तुम पर छंद बनाएं ।
अँखियन लट की नागिन लटकी,
अधरन कली कुमुदनी चटकी।
आभा उर रक्ताम्बर पट की,
कर सज्जित मणि माँखन मटकी।
ओट लिए गोरी घूंघट की,
राह चलत जैसे पनघट की ।
मोहन देख कमरिया झटकी,
उर की सांस उरई में अटकी ।
विकल दशा देखी नटखट की,
विचलित शाखा बंसीवट की ।
जान औषधि झट झंझट की,
विनती करी तुरत करवट की ।
– भूपेन्द्र राघव , खुर्जा,उत्तर प्रदेश