केहरि कटि कच किंकणी ,कंचुकि पर कुच भार।
कृष्ण खचित कौतुक नयन,कोकाबेली नार।।
छुप छुपाकर देखना,वे याद आते नैन तेरे ।
और वो तेरा लजाना ,झेंप जाते नैन तेरे ।
मूक यद्यपि चक्षु होते,गुनगुनाते पर दिखे नित….
भूल मैं सकती न उनको,गीत गाते नैन तेरे ।
मदिरा से उन्मद वदन, अँगड़ाई भी भार।
सद्य:स्फुट काव्य सी,अखिल विस्मयाकार।।
आत्मनिष्ठ एकाकिनी! चिर निर्मल अवदात।
वस्तुनिष्ठता से परे, अंग अंग व्यवदात।।
अपरा अणिमा गीतिका, प्रभावती प्रारूप।
तुम्हें निराला ने रचा,बेला! परिमल रूप।।
स्वर्णधूलि मुख धौत है, मधुज्वाल से नैन।
मृगेक्षिणी ग्राम्या वधू, वाणी पिक की बैन।।
मधु आसव औ तुम प्रिये! दोनों हैं इस पार।
ज्ञात नहीं उस पार क्या,शेष बचेगा सार ।।
प्रमाता मत बनो अतिशय,प्रमाणित कर न पाओगे ।
गहनतम तथ्य जगती का,विदारित कर न पाओगे ।
जगत में जो अ-सुंदर है,वही बस तर्क साधित है —
प्रणय बिन साक्ष्य है फिर भी,पराजित कर न पाओगे ।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली