माना मैं खामोश रहा ,पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।
मंचों पर चढ़ गए चुटकुले, दो पग आगे डोल न पाए ।।
कविता का वरदान मिला था , हम साहित्यक महारथी थे।
मुक्त छंद के मकड़जाल को , बुन लाये कुछ भ्रमित पथी थे।
अपने सिद्ध पीठ से उठकर , असली राह टटोल न पाए ।।
माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।1
बहुत सरल होता है कविवर , ऊंची ऊंची बात बनाना ।
लेकिन काम कठिन है भाई , श्रोता से ताली बजवाना ।
छंदों का संहार हुआ जब,क्यों अपना मुँह खोल न पाए ।।
माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।2
सच है इस खींचा तानी में , टूटे हिंदी महल कंगूरे ।
कविता हुई बंदरिया इनकी , मंचो पे छा गए जमूरे ।
मैं तो छंदों में बंदी था , तुम भी सच को तोल न पाए ।।
माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।3
सच है दौड़ नहीं पाए हम , रुपयों की आपा धापी में ।
सम्मानों के वितरण में भी, झोल हुआ नापा – नापी में ।
“हलधर” कटु साहित्य हुआ जब, मीठा उसमें घोल न पाए ।।
माना मैं खामोश रहा पर ,तुब भी तो कुछ बोल न पाए ।।4
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून