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वक़्त – विनोद निराश

गुजरी रुत की तरह,

लौट आया फिर वही दिवस,

फिर से वही माह,

जिसे भूलना मेरे लिए,

आज भी मील के पत्थर सरीखा है।

 

किसी न किसी बहाने,

ख़ुशी या गम के अवसर पर,

खुश्क आँखों के दरिचों से,

न चाहते हुए भी,

छलक पड़ती है द्रवित मन की पीड़ा।

 

वक़्त को तो कई बार मरहम बनाया,

मगर यादों की किर्चे,

ख्वाहिशों के जख्मों को कुरेदती रही,

बहुत कुछ पाकर भी,

रीते-रीते से नज़र आते हैं आशाओं के हाथ।

 

आज भी उनींदी आँखों में,

वहीं इंद्रधनुषी ख्वाबो के मेले लगे रहते है,

बिछी रहती है शतरंज की चौपर,

अनेको ख्याली पुलाव लिए,

बिखर जाता है हर दाँव, हर बार की तरह।

 

वो मरमरी से काँपते हाथों को मेरी तरफ बढ़ाना,

दबे होंठो से कुछ कहने की आतुरता,

तरसते कानो को सुनने की व्याकुलता,

होंठों के दरम्यां फंसे लफ्ज़,

याद है वो अधूरी बात, सफर में छूटता साथ।

 

वक्त ऐसे पलटा जैसे कि,

सारे सपने पराये हो गए हो,

खुशियाँ भी दस्तक देना भूल गयी,

दर्द की खरोंचों में काँच के ख्वाब चुभते गये,

जब काँपते हाथ हमारे छूटते गए।

 

कभी ख़ुशी, कभी गम, कभी आँसू बनकर,

तुम मेरे आस-पास ही रहे,

तुम्हारी स्मृतियों ने मुझे कभी तन्हा न छोड़ा,

मगर निराश मन हमेशा यही सोचता रहा,

कि मैं सफर में तन्हा ही चल रहा हूँ।

– विनोद निराश, देहरादून (रविवार 3 अप्रेल 2021)

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