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श्री राम जल समाधि – जसवीर सिंह हलधर

जय सिंह वाहिनी माता की , जगदम्बा की जग त्राता की ।

राजीव नयन मुरझे मुरझे ,कर रहे चयन उलझे उलझे ।।

मन से व्याकुल रीते रीते , अब टेर रहे सीते सीते ।

तू कहाँ खो गयी बैदेही , क्यों रुष्ट हो गयी बैदेही ।।

अब देह राम निष्काम हुई ,अब स्वास स्वास संग्राम हुई ।

पश्चिम की ओर ढला सूरज ,सरयू की ओर चला सूरज ।।

राघव को भांप रही सरयू ,कदमों को नाप रही सरयू ।

निर्णय से कांप रही सरयू ,बहती चुपचाप रही सरयू ।।

क्यों छोड़ छाड़ सारा वैभव ,पैदल चलते हैं क्यों राघव ।

यह सोच रही बहती बहती ,सरयू रोयी कहती कहती ।।

अब राम हिया किससे खोले ,अब गांठ जिया किससे खोले ।

अपना दुख दर्द कहाँ तोलें ,बोलें भी तो किससे बोलें ।।

सब भरत शत्रुघन छूट गए ,सीता औ लक्ष्मण छूट गए ।

धागे जगती के टूट रहे , बंधन धरती के टूट रहे ।।

यह मौन धैर्य कब तक पहनूँ , यह मुकुट शौर्य कब तक पहनूँ ।

भीतर भीतर गूँजा यह स्वर , अब जाना धरती से सत्वर ।।

सरयू का संशय और बढ़ा , छप से राघव का पैर पड़ा ।

घबराकर सिमट गयी सरयू ,चरणों से लिपट गयी सरयू ।।

रो रही वाटिका सी लहरें ,जल रही त्राटिका में नहरें ।

सरयू हटकर पीछे भागे , राघव बढ़ते आगे आगे ।।

पानी घुटनो घुटनों आया ,पानी पर दीख रही छाया ।

यह सोच रहे हैं रघुनंदन ,चिंतन में डूबा अंतर्मन ।।

आदर्शों का ये जाल बुना , मैंने खुद ही जंजाल बुना ।

दुनिया पुरुषोत्तम मानेगी , वैदेही सच पहचानेगी ।।

खंडित मैंने अनुबंध किये , दूषित अपने संबंध किये ।

चिंतन में डूबे रघुनंदन ,सरयू में डूबा आधा तन ।।

लहरें छूती ज्यों ज्यों देही , महसूस हो रही वैदेही ।

सागर जिनसे कांपे थर थर ,सरयू में डूब रहे रघुवर ।।

हे राम बताओ क्या जीता ,नतमस्तक पूछ रही सीता ।

राघव ने सुने प्रश्न सोये , अंतस में मेघबरन रोये ।।

अब नाभि तलक आयी सरयू , दिखती है घबरायी सरयू ।

कौदण्ड ताप से पिघल गया , सरयू जल उसको निगल गया ।।

जो राम किये तुमने  निर्णय ,तुम भूल गए संयुक्त प्रणय ।

भूले मुझको कोलाहल में ,जगती की झूठी हलचल में ।।

अंतस खुद को ललकार रहा ,जग तारक खुद से हार रहा ।

आया है कंधों तक पानी , तटबंधों को भी हैरानी ।।

सरयू लहरों में हलचल है ,राघव की आंखों में जल है ।

ऊपर नभ है नीचे तल है , आगे कल है पीछे कल है ।।

सागर जिसके पग में पाया , भूधर उड़कर लंका आया ।

तूफान बबंडर के मालिक , मैदान समंदर के मालिक ।।

जगती से कैसे ऊब रहे ,सरयू में जाकर डूब रहे ।

मर्दन से घबराई सरयू ,गर्दन से टकराई सरयू ।।

दो नील कमल बिखरे जल में ,दो नील कमल निखरे जल में ।

राजीव नयन दिखते जल में ,त्रिलोक सयन दिखते जल में ।।

अब डूब रही सारी काया , लहरों पर सीता की छाया ।

सरयू सागर सी दीख रही , हरि से हरि हरना सीख रही ।।

मानो पानी में आग लगी ,सारी परजा उठ जाग भागी ।

दिनकर पानी में डूब रहा , रघुवर धरती से ऊब रहा ।।

सरयू भी कांप रही थरथर , राजीव नयन उभरे ऊपर ।

दो दीप जल रहे सरयू में , जग दीप जल रहे सरयू में ।।

हाथों में पुष्पक माल लिए ,स्वागत में पूजा थाल लिए ।

वैदेही लहरों पर आयी , दुनिया ने देखी परछायी ।।

ज्योयिर्मय अब आकाश हुआ ,आलौकिक बृहद प्रकाश हुआ ।

लक्ष्मी का रूप धरे सीता , असली प्रारूप भरे सीता ।।

अब लुप्त हुए राजीव नयन , ज्योतिर्मय रूप लिए भगवन ।

अब धरती से जगदीश चला ,युगधर्म सिखाकर ईश चला ।।

अलौकिक रूप दिखा सबको , असली प्रारूप दिखा सबको ।

केवल नर रूप विसर्जित है , नारायण सबको अर्जित है ।।

हर नर में रहते नारायण , घर घर में रहते नारायण ।

हर नारि हमारी सीता है ,सच्ची है परम पुनिता है ।।

सब राम नाम की यह माया , कलयुग में भी मिलती छाया ।

जन गण में राम विराजे हैं , कण कण में राम विराजे हैं ।।

यह कथा जानकी रघुवर की , आधार शिला है घर घर की ।

नर रूप धरे नारायण की , लीला कर्तव्य परायण की ।।

जीवन गाथा पुरुषोत्तम की , कथनी करनी नर उत्तम की ।

परुषोत्तम कहती रामायण ,तुलसी बतलाये नारायण ।।

भवभूति किये पैदा संशय , संवेदनहीन दिया परिचय ।

कुछ मिथ्य कथनक लिख डाले ,कुछ कथ्य भयानक लिख डाले ।।

उत्तर रामायण नाटक है , ये बौद्ध काल का फाटक है ।

सीता वनवास लिखा उसमें , बौद्धिक संत्रास लिखा उसमें ।।

राम सोम हैं गरल नहीं है ,ठोस तत्व हैं तरल नहीं हैं ।

परुषार्थ राम का जीवन था ,परमार्थ राम का जीवन था ।।

खद्दर मलमल के मूल्य  हुई ,सरयू गंगा सम तुल्य हुई ।

काशी सा मान अयोध्या का ,जग में सम्मान अयोध्या का ।।

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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