तुम देश के नौजवान हो,
न भटको होकर अनजान,
है गिरगिट इंसानी खोल में,
खोल आँख इनको पहचान।
थाली में बैंगन लुढ़के ज्यों,
या जैसे बिन पेंदी का लोटा,
गधे को भी बाप बना लें
चला रहे है सिक्का खोटा।
चाणक्य भी सिर धुनते होंगे,
देख देखकर इनकी चाल,
गिरना पड़े किसी स्तर तक,
तिजोरियों में भरना है माल।
समाज देश और जाति धर्म को,
ढाल बना पीछे से छुपकर,
अपना उल्लू सीधा करते,
पांचों उँगली है घी में तर।
भटकाते भोली जनता को,
खुद की गिरेबान न झाँकें,
घुसे हुये कोयले की खान में,
काले पत्थर को हीरा आँकें।
लड़वाना और दंगे करवाना,
इनके बाँये हाथ का काम,
जहर उगलते रचते षणयंत्र,
करते राजनीति बदनाम।
नियम नया कोई भी आये,
न जाचेंगे न परखेंगे,
जा बैठेंगे जंतर मंतर पर,
काम काज सब ठप्प करेंगे।
कुछ राजनीतिक बेरोजगार,
ठंडा पड़ा जिनका व्यापार,
तौल रहे सम्मान देश का,
करते बदनामी सरहद पार।
नींव में लगी दीमक है ये,
खोखले किये संस्कृति संस्कार,
अब भी वक्त है लौट चलें हम,
समझें सही गलत आचार विचार ।
आदर्श युवा के विवेकानन्द हों
न पथ से भटकेंगे कभी
मन ब्रह्मकमल सा खिल जायेगा
होगा देश कल्याण तभी।
– माला अज्ञात, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
ध्वनि संवाद- ९७५३१३०९६६