मैं रोज सुबह चौराहे पर रहता खड़ा,
ढूंढने को कोई रोजगार नया…
रोज साथ लेकर चलता हूं कई बोझ दिल पर,
शायद कभी मैं भी पहुंचू मंजिल पर….
मगर उठाते हुए ईंटें ढोते हुए पत्थर,
मैं सोचता हूं अक्सर….
क्या केवल मैं ही हूं मजदूर…
वो काम वाली बाई, वो सब्जी बेचने वाला,
वो स्कूल की आया ,वो होटल पर चाय देने वाला…
और वो सुबह से लेकर शाम तक,
बस में कुछ बेचने को करता बक बक…..
सब थक कर चूर होते दिन भर,
मैं सोचता हूं अक्सर…..
क्या केवल मैं ही हूं मजदूर…..
वो दिनभर घर में चकरघिन्नी सी घूमती औरत,
वो बाजार में भटकता हुआ रिपोर्टर…..
वो सर्कस में इधर उधर घूमता जोकर,
वो दुकान में ग्राहकों जूझता नौकर….
सभी तो होते हैं पसीने से तर-ब-तर,
मैं सोचता अक्सर…..
क्या केवल मैं ही हूं मजदूर….
नहीं जो भी है मजबूर…..
सभी हैं मजदूर….
-ऋतुबाला रस्तोगी , चाँदपुर बिजनौर