डर कब तक एक दूजे को बांधेगा
मन आजाद परिंदा है
थोड़ा सा जो भरमाया
नीले गगन में उड़ जाएगा
खुद के पंखों पर हमें है अभिमान
उन्मुक्त गगन में विचरण ही हमे भाएगा।
देख ..
यूं तो बहुत जागीर है मेरे पास..
लफ्जों की …
पर कुछ भी न लिख पाना …
आज मेरी मज़बूरी है….
जज्बातों का ..
मन में जो उठ रहा है सैलाब,…
उसे तुझ तक पहुंचाना भी तो…
हैं बहुत जरूरी ….
…….✍️सुनीता मिश्रा, जमशेदपुर