जिंदगी के दिन बस यूँ कट रहे हैं,
एक एक दिन यूँ बस घट रहे हैं।
जोड़ते रहे उम्मीदो के झूले सभी,
ख्वाईशो के परिंदे दीवार पे टँग रहे हैं।
देते रहे उलाहना जी भर कर हमको,
देखकर नसीहते उनकी दंग रहे हैं।
हक खो चुके कुछ भी कहने का अब।
सुनकर बाते जहर भरी हम फट रहे हैं।
रखते है खाली जेबे,कुछ देना न पड़े।
मरा जमीर रीतू रिश्तो में लोग बँट रहे हैं।
रीतूगलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़