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श्रृंगार नयन बन रहा करो – प्रियदर्शिनी पुष्पा

मत झड़ो हृदय के कोमल जल.

श्रृंगार नयन बन रहा करो.

हो कर प्रवाह दृग धारों से.

मन मोह प्रेम मत बहा करो।

उस जल के निर्मल स्रोतों में,

तुम विमल कमल बन खिला करो,

मृदु मोम सी पिघली भावों में,

पीयूष स्रोत सम बसा करो।

 

धुँधला अतीत मत बनो अभी,

चिर शाश्वत अटल बसो सुर में,

इन दृग की अमर प्रतीक्षा को,

उड़ने दो अंतस के उर में।

लेकर किलोल उजड़ेपन का,

कभी मधुर तान भी बना करो,

मत झड़ो हृदय के कोमल जल,

श्रृंगार नयन बन रहा करो।

 

इन संघर्षों की बाहों में,

खो गये मधुर सारे सपने,

कुछ सुप्त पड़ी हिय की हसरत,

कुछ लूट गये दिल से अपने,

अब पाश थाम बीहड़ पथ का,

यूँ शूलों पर न चला करो।

 

मत झड़ो हृदय के कोमल जल,

श्रृंगार नयन बन रहा करो,

इन बोझिल पलकों ने दृग से,

सावन सा जल बरसाए हैं,

अब कहाँ सम्हालें धारों को,

नव पीर पयोधर छाए हैं

जब चरम छुआ अंतर्तम ने,

तब तो प्रकाश बन तिमिर हरो,

मत झड़ो हृदय के कोमल जल,

श्रृंगार नयन बन रहा करो।

– प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर

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