धरती माँ का रूप सुनहरा,
धानी चूनर रंग गहरा।
विकास राह चढ़ते-चढ़ते,
कही रूप न इसका खो जाये।
इसके आंचल में वन-शजर,
इठलाती नदियाँ ये सागर।
जल संचय न करते- करते,
कही हयात ही न खो जाये।
घर टूटे परिवार छूटे,
लोगों के हृदय भी झूठे।
मोह मे हम लिपटे- लिपटे,
कही ममता भी न खो जाये।
– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड