नित्य लुटती भू धरेगी धीर कब तक,
जब्त सीने में करेगी पीर कब तक।
लाड़ले उसके नये नित दर्द देते,
वह खिलायेगी सुतों को खीर कब तक।
हो न अच्छा सुत न होती माँ कुमाता,
किन्तु वसुधा यह रखे तासीर कब तक।
स्वार्थ धरती सह रही कब से मनुज का,
आँख में भर के रहेगी नीर कब तक।
रौंदना छोड़ो धरा को जाग जाओ,
पा सकोगे इस तरह से क्षीर कब तक।
— मधु शुक्ला . सतना , मध्यप्रदेश