मेरे सिरहाने रखी ख्वाबों की किताब का,
वह आखरी पन्ना खाली ही रह गया ,
कुछ शब्द खो गए थोड़ा वक्त ठहर गया ,
तू तो अपना था, तू भी बदल गया ,
धीमी चाल थी मेरी, लंबे केश थे मेरे,
आघात ऐसा था ,मेरा सब कुछ बदल गया ,
बेचैनी ऐसी थी , अधर भी सिरह उठे,
धड़कने मानो रुक सी गई,
मेरी मुस्कान पर मरता था जो ,
ना जाने ,कहां छिप गया ,
पैर जैसे जम से गए ,
लब जैसे सिल से गए ,
जो मेरा था वह मेरा ना रहा,
सब कुछ पीछे छूट गया ,
सब कुछ पीछे छूट गया,,,,,,,,
– प्रीति पारीक, जयपुर, राजस्थान