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हिंदी ग़ज़ल – जसवीर सिंह हलधर

लालच, लोभ ,मोह, बीमारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

दकियानूसी सोच हमारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

कर्तव्यों के सरिया पत्थर हर खम्बे से दूर खड़े हैं ,

अधिकारों की मारामारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

देश धर्म का भान नहीं है झंडे का सम्मान नहीं है ,

राजनीति की ये अय्यियारी चारों खम्बों से चिपकी है ।

 

चारो में रक्षक बैठे है चारो में भक्षक भी बैठे ,

अपनी अपनी कारगुजारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

एक महामारी ने यारो दर्पण सबको दिखलाया है ,

दवा, हवा पर भी मक्कारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

सच कहना मेरी मजबूरी कड़वा है पर बहुत जरूरी ,

थोड़ी थोड़ी सी मक्कारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

धृतराष्ट्र के हाथ तराजू कैसे न्याय युधिष्ठिर पाए ,

अंधे युवराजों की यारी चारो खम्बो से चिपकी है ।

 

बाबा ने आरक्षण हमको दस वर्षों के लिए दिया था ,

इस को ढोने की लाचारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

संविधान निरपेक्ष किया तो वक्फ बोर्ड क्यों बचे हुए हैं ,

खास धर्म की पैरोकारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

 

जाति पाति के मकड़ जाल ने पूरे भारत को जकड़ा है ,

मज़हब की “हलधर” चिंगारी चारो खम्बों से चिपकी है ।

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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