अपने मन की कर सदा, करते हैं अन्याय।
मूक बने सब देखते, ये है कैसा न्याय।
ये है कैसा न्याय, कहीं तो छूट मिली है।
अलग-अलग अभिप्राय, तंत्र की चूल हिली है।
कुछ को ही बस पोष, तोड़ते बहु के सपने।
मन में बढता रोष, साथ जब दिखें न अपने।।
बढ़ता उन्नति पथ रहे, अपना भारत देश।
जोड़ नये आयाम को, बदले निज परिवेश।
बदले निज परिवेश, सकल खुशियाली आए।
रहे न कोई क्लेश, नवल हरियाली छाए।
स्वप्न तभी साकार, हर इक जन श्रम हो करता।
छोड़ सकल संसार, वतन उन्नति पथ बढ़ता।।
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा/उन्नाव , उत्तर प्रदेश