अंतस वो दीप जलता ही रहा.
मेरे मन के भीतर.
मैं कई बार चाही उसे बुझा दू.
ज़ब भी कोशिश की एक टिस सी उठी.
किसे बुझा रहीं आखिर वो मेरे दिल का हिस्सा है.
जिस संग मैं प्रेम में तपी.
जिस संग मैं प्रेम में बँधी.
जिस संग हर कसम ली.
साथ चलने की.
साथ रुकने की.
साथ बुझने की.
क्यों कर मैं उसे बुझा दू.
कितना अंधकार होगा फिर मन में.
कैसे उसे तलाश करुँगी.
कैसे अपने पीर कहूँगी .
कौन गवाह होगा मेरे.
कपोल पे बहते गर्म आंसू के.
ना मैं खुद भी जलूँगी और उसे भी जला रखूगी.
अपने मन के प्रीत समझ कर.
बही तो अब इक साथी है.
जो संग है अंतस मनदीप बन कर.
– मीरा पाण्डेय, दिल्ली