मनोरंजन

नेकी नौ कोस बदी सौ कोस (व्यंग्य)- सुधाकर आशावादी

 

neerajtimes.com – अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगाम कसना कभी कभी ज़रूरी हो जाता है। ज़रूरी इसलिए भी कि बिना लगाम कसे घोड़े को मनमानी दौड़ करने से रोकना मुश्किल जो होता है। आजकल सोशल मीडिया पर रील बनाने का चलन है, खासकर महिलाओं में सेलिब्रिटी बनने का भूत सवार है। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कोई भी किसी भी हद से गुजऱ सकता है। इतिहास गवाह है कि नेकी नौ कोस बदी सौ कोस तक फैलती है। निंदा को लोग चाव से सुनते हैं, किसी की प्रशंसा को नही। फ़िल्मों में भी खलनायक की भूमिका नायक से अधिक पसंद की जाती है। इसी का अनुसरण करने में यू ट्यूबर भी जुटे रहते हैं। लोकप्रियता जब सर चढ़कर बोलती है, तो चींटियों के भी पर उग आते हैं। आसमान से धरती पर आदमी भी कीड़े मकोड़े से दिखाई देते हैं। सारा खेल ही नजरिए का है। जिसका जैसा नजरिया उसका वैसा विमर्श। यदि किसी व्यक्ति, परिवार या समूह के प्रति मन में निष्ठा का भाव है, तो उस भाव को सिद्ध करने के लिए व्यक्ति मनमाने तर्क देकर अपनी ही बात को श्रेष्ठ करने का प्रयास करता रहेगा। एक मित्र से चर्चा करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकला कि वह जो भी जिस प्रकार से देखना चाहते हैं, वैसा ही देखते हैं। यह अपनी अपनी दृष्टि का विषय है। विभिन्न रोजगारों में जुटे लोग केवल अपने मतलब तक सीमित रहते हैं, मसलन दर्जी अपने सामने से गुजरने वाले शख्स के परिधानों की बनावट, डिजाइन पर नजर गढ़ाता है, तो ड्राईक्लीन करने वाला या धोबी कपड़ों की सफाई और करीने से की गई प्रेस से दूर की गई  सलवटों पर।

ऑटो मैकेनिक आती जाती स्कूटी या बाइक के मॉडल और फिटनेस पर। लेखक अन्य लेखकों की रचनाओं पर। यानी जो स्वयं को जिस क्षेत्र का महारथी समझता है, वह उसी क्षेत्र में अपनी पैनी नजर का उपयोग करता है। उसका नजरिया भी अलग होता है। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि और विशेषज्ञ की दृष्टि अलग अलग होती है। अधिवक्ता कानूनी पहलुओं को देखता है और चिकित्सक स्वास्थ्य से जुड़े पक्ष को। इन सबके अतिरिक्त एक प्रजाति ऐसी है, जिसका नजरिया समय के साथ बदलता है। उस प्रजाति से जुड़े लोग देश, काल और अपनी स्थिति के अनुसार ही अपने नजरिये में फेरबदल करते रहते हैं। न जाने कब वे सकारात्मक दृष्टि रखें और कब नकारात्मक कोई स्पष्ट नहीं कह सकता। आस्था के महाकुंभ में भी सभी ने अपनी अपनी नजर का कमाल दिखाया, किसी ने जल धाराओं के संगम में स्नान को आडम्बर कहा, तो किसी ने आस्था का विषय। किसी ने करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए की जाने वाली व्यवस्था को सराहा तो किसी ने व्यवस्था में कमियों का ही विश्लेषण किया। किसी ने अपनी दृष्टि भगदड़ में कुचली गई मृत मानव देह की गिनती को बढ़ा चढ़ाकर अफवाहें फैलाई तो किसी ने स्नान स्थल की सफाई व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। किसी ने महाकुंभ को सामाजिक समरसता का प्रतीक बताया, तो किसी ने इसे जातीय छुआछूत तक ही सीमित करने का प्रयास किया। निसंदेह ‘जाकी रही भावना जैसी, तिन देखी प्रभु मूरत वैसी’ कहावत चरितार्थ हुई। यानि लाशों को देखकर गिद्धों की आँखों में चमक आ गई, संवेदनशील लोगों ने मानवीय रिश्तों में आत्मीयता को महसूस किया। श्रद्धालुओं ने आस्था के संगम में पुण्य की अनुभूति की। रोजी रोटी की तलाश में भटक रहे लोगों ने रोजगार देखा, मानवीय संवेदनाओं के प्रति समर्पित लोगों ने जाति विहीन व्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से देखा व बिना किसी भेदभाव के संगम स्नान किया। आम आदमी ने सनातन संस्कृति की जन जन को जोडऩे वाली परम्परा का जीवंत उदाहरण देखा। यही स्थिति पहलगाम में हुए आतंकी हमले पर हुई। किसी ने हमले में धार्मिक आतंक के दर्शन किए, किसी ने सुरक्षा बलों को लापरवाह सिद्ध किया। सच किसी ने नही जाना। बहरहाल जिसने जो भी देखा, वह अपनी इच्छा और अपने नजरिए के अनुसार देखा या ये कहे कि जो जैसा भी देखना चाहता था, उसने वैसा ही देखा। वैसे भी यदि सभी एक सा सोचने लगें, एक सा देखने लगें, एक ही दिशा में दौडऩे लगें, तो तर्क की अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी। व्यापक चिंतन दिशाओं के लिए अपने अपने नजरिए अपनी अपनी सोच किसी भी स्थिति में गलत नहीं कही जा सकती। फिर भी सत्य यही है कि लोग अपने अपने पूर्वाग्रहों में ही जीते हैं, अपने इर्द गिर्द अपने अपने चिंतन आकाश बुनने की उन्हें स्वतंत्रता प्राप्त होती है और यह स्वतंत्रता उनके मौलिक अधिकारों में निहित होती ही है। (विनायक फीचर्स)

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