“घूंघट छोड़ा स्वप्न ने, खोले नभ के द्वार,
ढाणी बीरन गा रही, नारी का जयकार।”
“चौपालों की सांस में, बदली नई बयार,
आंचल हटते ही दिखे, सपनों के उपहार।”
“धर्म, परंपरा, प्रेम से, बाँधे नए विचार,
ढाणी बीरन ने किया, नारी का सत्कार।”
“बंद दरवाजे खुले, खुली हवा की रीत,
नारी ने जाना तभी, स्वयं उसी की गीत।”
“ओट घूंघट की हटी, दिखा तेज उजास,
चरणों से नभ नापती, बढ़ी स्वप्न की आस।”
“जो घूंघट में कैद थी, आज बनी हुंकार,
नन्हीं मुस्कानों में बसा, नव युग का विस्तार।”
“माथे से बोझा हटा, मुस्काया है आज,
बेटी-बहुओं संग चला, बदला हुआ समाज।”
“ढाणी के हर द्वार पर, बजते नवल सितार,
बढ़ते नारी के कदम, रचा नया संसार।”
“आँखों से अब छलकते, आशा के मधु रंग,
ढाणी की सब बेटियां, नव उत्सव के संग।”
“रोके ना दहलीज अब, अब ना बंदनवार,
नारी ने खुद रच लिया, सपनों का संसार।”
– डॉo सत्यवान सौरभ, 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन,
बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148