अपनों से अपनत्व रखें हम, संस्कार यही कहते हैं-
मोह-माया के मोहक धागे, इसीलिये बांधे रखते हैं,
राजा हो गया रंक कोई भी,जीव-जंतु,पशु-पाखी-
जुड़ें परस्पर इसी मोह से जब तक सांसे हैं बाकी।
मानव-मन में रिश्ते-नाते,अहम भूमिका अदा करें-
ठोकर लगे न संभलें फिर भी,अपनों पर ही सदा मरें,
कहते हैं अपने ही मारें,द्वेष-जलन की तेज कटार-
गहरे घाव करें मानस पर,कटु शब्दों से करें प्रहार।
मोह रखें मां-बाप हमेशा अपनी ही संतानों से-
अश्रु बहाते,अपमानित होते जब उनके तानों से,
मोह का पर्दा आंखों पर रहकर अंधा कर देता है-
अपनों से धोखा खाकर मन जार-जार रो लेता है।
‘अति से अमृत विष बनता है’ सोलह आने बात सही है-
अधिक मोह दु:ख ही देता है,रीत जगत की यही रही है.
फिर भी निर्मोही बन जाना,आत्मबली की है पहचान-
निराकार से लगन लगाकर,पाओ उचित मान सम्मान।
-डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली