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साधना अक्षुण्ण हृदय की – अनुराधा पाण्डेय

साधना अक्षुण्ण हृदय की,सद्य यूँ आकार लेती ।

नेह की हविषा समेटे ,यज्ञ हित अर्पित हवन मैं……

 

पात्रता सबको न मिलती,पुण्य पथ अवधारने की ।

रश्मियाँ यूँ ही न मिलती,छल अमा को मारने की ।

मिल सकी ये योग्यता है,प्रेम को पूजा बनाकर–

प्रीत मैं केवल न लिखती,प्रीत की सच्ची लगन मैं।

नेह की हविषा समेटे,यज्ञ हित अर्पित हवन मैं।

 

शूल पथ के दे न सकते ,पाँव को विचलन कभी भी ।

घुर विरह से जल न पाया,प्रेम का मधुवन कभी भी ।

देवता हित मैं रही हूँ ,नित्य ही नैवेद्य बनकर –

वर न माँगूँगी मिलन का,मूर्त हूँ चित का दमन मैं।

नेह की हविषा समेटे,यज्ञ हित अर्पित हवन मैं।

 

कौन झंझा है बलित जो,तोड़ दे उर के निलय को ।

बेंध दे शर में न बल वो ,दो हृदय के चिर विलय को ।

मृदु प्रणय की नींव मेरी,सृष्टियों का छोर बाँधे –

जो न हिल सकता प्रलय में ,चिर अखण्डित वो भवन मैं।

नेह की हविषा समेटे,यज्ञ हित अर्पित हवन मैं।

– अनुराधा पाण्डेय अनु, द्वारिका , दिल्ली

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