मनोरंजन

ग़ज़ल – विनोद निराश

झुका के नज़रे एहतराम कर गई,

हया से ही सही सलाम कर गई।

 

कब से उदास थी महफ़िले-दिल,

वो नाज़नीन हंसीं शाम कर गई।

 

इक नज़र की तलब क्या बतायें,

बेसब्री मेरी भी सरे-आम कर गई।

 

 

सुर्ख पैरहन और वो लचकती कमर,

दिल का मेरे काम तमाम कर गई।

 

लब कंवल वो कानो की बालियाँ,

हुस्ने-ताब दिल का काम कर गई।

 

खुले गेसू मरमरी बाहें वो सादगी,

रातों को जगाना आम कर गई।

 

रूखे-रोशन की मिसाल अब क्या दे,

इश्क़ वालों में वो भी नाम कर गई।

 

निराश आँखों में रात की तिश्नगी,

इंतज़ार में दिन तमाम कर गई।

– विनोद निराश , देहरादून

Related posts

कवयित्री डॉ प्रेम लता रसबिन्दु को ‘भारत रत्न अटल सम्मान- 2024’

newsadmin

राम रतन श्रीवास ‘राधे राधे’ दो वर्ल्ड रिकॉर्ड में एक साथ नाम दर्ज

newsadmin

रखना खयाल मेरे भाई – गुरुदीन वर्मा.

newsadmin

Leave a Comment