झुका के नज़रे एहतराम कर गई,
हया से ही सही सलाम कर गई।
कब से उदास थी महफ़िले-दिल,
वो नाज़नीन हंसीं शाम कर गई।
इक नज़र की तलब क्या बतायें,
बेसब्री मेरी भी सरे-आम कर गई।
सुर्ख पैरहन और वो लचकती कमर,
दिल का मेरे काम तमाम कर गई।
लब कंवल वो कानो की बालियाँ,
हुस्ने-ताब दिल का काम कर गई।
खुले गेसू मरमरी बाहें वो सादगी,
रातों को जगाना आम कर गई।
रूखे-रोशन की मिसाल अब क्या दे,
इश्क़ वालों में वो भी नाम कर गई।
निराश आँखों में रात की तिश्नगी,
इंतज़ार में दिन तमाम कर गई।
– विनोद निराश , देहरादून