क्या बताऊँ मौन वाणी,
भाव वर्णन से परे हैं,
प्रेम की पहली छुवन के….
शब्द बौने क्या भला ये ,
प्रेम के उपमान होंगे ।
लग रहा ज्यों शब्द में कुछ,
कह दिया तो म्लान होंगे।
मोक्ष जैसे भाव होते –
दो हृदय के शुभ मिलन के।
प्रेम की पहली छुवन के ।
भोर की पहली किरण या
जेठ में पावस झड़ी -सी।
या कि शैशव थाम ले कर ,
एक पावन फुलझड़ी-सी।
दृश्य ये भी हैं निमिष भर –
राग के उन अवतरण के
प्रेम की पहली छुवन के।
कार्य कारण से परे ये,
जड़ गणित कब मानते हैं।
नद्ध मन होते अकारण ,
प्रेम हठ जब ठानते हैं।
पूछ कर हैं कब महकते-
पुष्प अंतरतम विजन के।
प्रेम की पहली छुवन के।
जब मधुर वो लौ जली थी,
क्या कहूँ कैसी लगी थी।
पारलौकिक वंद्य रस में,
आत्मा -मानो पगी थी ।
वंदना रत पूज्य हित थी-
नम्य शुचि रज थे चरण के।
प्रेम की पहली छुवन के।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली