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जाऊॅं कहाँ – नीलकान्त सिंह

बन कर मैं राहगीर जाऊॅं कहाँ जाऊॅं कहाँ,

राह दिखे नहीं भटकता हूँ जहां- तहां ।

आश्रय लिए जहाँ जब भी रुकता हूँ मैं ,

छल-कपट  ईर्ष्या-द्वेष मुझे दिखता वहाँ ।।

 

इस जन्म के इस जीवन में जाऊॅं कहाँ,,

टिक सकता नहीं मैं रह रहा क्लेश जहाँ ।

जीवन होता काला पीकर विष प्याला,

पीयूष पीने दुनिया में जाऊॅं कहा ??

 

व्याकुल यह मन बहुत चिल्लाने लगा है ,

धरती से अम्बर तक भरमाने लगा है।

जीवन की प्यास  बुझाने जाऊॅं कहाँ,

मन भटक रहा है यहां-वहाँ, जहाँ- तहाँ ।।

 

दौड़-भाग और प्रेम -प्रीत के फेर में,

ऊॅंच-नीच और खेल-खेल के फेर में।

मानवता में फिर कुछ ऐसी बात कहा,

बस भेद-भाव ही है इनमें जहा-तहा।।

– नीलकान्त सिंह नील, बेगूसराय, बिहार

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