बन कर मैं राहगीर जाऊॅं कहाँ जाऊॅं कहाँ,
राह दिखे नहीं भटकता हूँ जहां- तहां ।
आश्रय लिए जहाँ जब भी रुकता हूँ मैं ,
छल-कपट ईर्ष्या-द्वेष मुझे दिखता वहाँ ।।
इस जन्म के इस जीवन में जाऊॅं कहाँ,,
टिक सकता नहीं मैं रह रहा क्लेश जहाँ ।
जीवन होता काला पीकर विष प्याला,
पीयूष पीने दुनिया में जाऊॅं कहा ??
व्याकुल यह मन बहुत चिल्लाने लगा है ,
धरती से अम्बर तक भरमाने लगा है।
जीवन की प्यास बुझाने जाऊॅं कहाँ,
मन भटक रहा है यहां-वहाँ, जहाँ- तहाँ ।।
दौड़-भाग और प्रेम -प्रीत के फेर में,
ऊॅंच-नीच और खेल-खेल के फेर में।
मानवता में फिर कुछ ऐसी बात कहा,
बस भेद-भाव ही है इनमें जहा-तहा।।
– नीलकान्त सिंह नील, बेगूसराय, बिहार