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जिंदगी – रेखा मित्तल

वक्त ही कहां मिला

सरकती गई उम्र

तमाम जिम्मेदारियों में

कब दबे पाँव जिंदगी

रेत की तरह फिसल गई

अपने बारे में सोचने का

वक्त ही कहां मिला

अब बचे नहीं मेरे ख़्वाब

मेरी इच्छाएं, आकांक्षाएं

जीवन की सांझ हो चली

उगता सूरज कब ढलने लगा

यह निहारने का

वक्त ही कहां मिला

वो नादानियां, वो अल्हड़पन

छोड़ आई कहीं बहुत पीछे

ग़म को छुपा सीने में

मुस्कुराना सीख लिया मैने

अपने चेहरे पर आई सिलवटों

को देखने का भी

वक्त ही कहां मिला

राग-अनुराग नहीं आया

मेरे आंचल में

अपना बनाने की कोशिशें

तमाम बेकार हो गई

चंचलता कब बदल गई

उदास,खामोशियों में

यह विचारने का भी

वक्त ही कहां मिला

अब तो तकलीफ़ भी नहीं होती

किसी की बेवफाई से

आंसुओं ने भी आंखों में ही

रहना सीख लिया

समय से पहले ही

समझदार बन गई मैं

अपनों को पहचानने का

वक्त ही कहां मिला

– रेखा मित्तल, चंडीगढ़

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