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बिखरते घरों का काल, रिश्ते में आती दरार – सुनील गुप्ता

( 1 ) बिखरते चले जा रहे

कुटुंब, हमारे सयुंक्त परिवार   !

और रिश्तों में पड़ रही दरारें…,

अब, कैसे झेलें, ये काल की मार !!

 

( 2 ) टूटते जा रहे सपने

रहने को विवश, हैं एकल परिवार !

और हम चले जा रहे, बंधे क्षूद्र स्वार्थों में.,

यही बन रहे टूट का प्रमुख मूल आधार  !!

 

( 3 ) दरकते रिश्तों की कहानी

सुनायी दे रही, दसों दिशाओं से   !

कोई बतलाए इसे, मुँह ज़ुबानी कैसे ..,

सब हैं बेबस, मुँह पे लगाए ताला बैठे  !!

 

( 4 ) सहमते सभी चुप बैठे ,

समय को बहते देख रहे, मुट्ठी से   !

कहीं दूर नहीं लगी ये आग यहाँ पे..,

स्वयं आहुति दे रहे , जीवन यज्ञ में  !!

सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान

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