आज छप्पन के पार हुआ हूँ,
अपने किरदार से जुदा हुआ हूँ,
वो अदाकारी कहाँ रही अब,
जिसकी लालसा अभी बाकी है तुझे,
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
न कमसिन हूँ, न जवां हूँ,
जैसा था, आज ही वैसा हूँ,
बस उम्रदराज़ सा बचा हूँ,
सबके सामने कहता हूँ तुझे,
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
बस वैसा ही रहना चाहता हूँ,
जैसा तुम छोड़कर गए थे,
मृगतृष्णा त्याग दी है मैंने,
राज ये बताता हूँ तुझे,
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
इक तेरी रुखसती के बाद,
मुखालिफ भी याद करते है मुझे,
मगर सारे शौक हुए जुदा मुझसे,
और क्या-क्या बताऊँ तुझे?
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
न पहनने का शौंक रहा,
न रहा सँवरने का शऊर,
अनवरत एक रोज़ कम होता ज़िंदगी का,
सोचता था तन्हाई में हर रोज़ तुझे,
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
बढ़ती उम्र के साथ, बढ़ता चश्मे का नंबर,
नासमझी से परे परिपक्वता के करीब,
धुँधली स्मृतियों के साथ खड़ा बुढ़ापा,
ज़िंदगी का ताना-बाना कैसे समझाऊँ तुझे?
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
एक फ़र्ज़ अदा हो चुका,
एक ज़िम्मेदारी है अभी बाकी,
दिन-रात उधेड़-बुन में रहता हूँ ,
पर मन की बात ये कहता हूँ तुझे,
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
उन्मुक्त होती आशाएं,
पनपती अशेष अभिलाषाएं,
निराश हृदयांगन में आहिस्ता-आहिस्ता,
जब उतरती हो तुम कैसे बताऊँ तुझे?
अब कहां भाती है, ये बातें मुझे।
– विनोद निराश, देहरादून (30 सितम्बर 2024)