कब कहा हमने तुमसे की
दिखा दो हमें ताजमहल|
लाखों में आते हैं यात्री है
वह दर्शनीय स्थल!
पर वो तो है एक ताबूत
फिर भला क्यों हम कहे
दिखा दो हमें ताजमहल?
हौले से कभी आकर
लगा देते हो जब गजरा,
नजर ना लगे तुम्हें कहीं,
मेरी ही आँखों से निकाल
लगा देते हो जो कजरा,
छू लेते हो इन हरकतों से
अक्सर मेरा हृदय तल,
फिर भला हम क्यों कहे
दिखा दो मुझे ताजमहल?
झुमके जो तुमने मुझे थी दिलाई
उसके परिधि में मेरी दुनिया समाई,
देखते हो जब तुम हमे अपलक
भावनाएं सारी जाती है छलक,
इसकी भला कौन करे तुरपाई,
जहाँ प्यार आँखों से छलकता छल छल
कैसे कहे हमें दिखा दो ताजमहल?
कैसे हो सकती है वह प्रेम की निशानी?
बनी जिनके लिए उन्होंने ही ना जानी।
सुनायी पड़ती हमे उसमें उन कारीगरों
की चीखे कराहें और रोती बिलखती आहें,
जिन्हें अपने बाजुएँ पड़ी थी गँवानी|
तो बताओ भला क्यों कहे हम दिखा दो
कराहों से भरी ऐसी प्रेम की निशानी?
तुम्हारे गजरे झुमके और पायल
उन्हीं के बस हम हैं कायल।
जिनके नाम से ही पाषाण तैर गये सिंधु पर,
कभी मिले फुरसत तो दिखा दो
वो सिंधु में तैरते हुए पाषाण के सेतू,
जिसे प्रभु श्री राम ने वैदेही के लिए थी बनाई,
पा लेंगे हम अपने जीवन की सारी की सारी कमाई|
इससे बढ़कर हो सकती कोई प्रेम की निशानी?
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर